देहरादून: उत्तराखंड राज्य की राजधानी बनने के बाद दूनघाटी की पुरानी पहचान खत्म होती चली जा रही है। तमाम ‘धरोहरें’ ध्वस्त की जा चुकी हैं। इनमें सरकारी ही नहीं, ऐसी निजी इमारतें भी शामिल हैं, जो इस शहर की खास पहचान रही हैंं। अब शहर का आजादी बाद तब के हिसाब का वह पहला ‘आधुनिक’ सुविधाओं से लैस होटल भी ध्वस्त हो रहा है, जो कभी समूचे गढ़वाल मंडल ही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी देहरादून की पहचान था। वह ‘लैंडमार्क’, जिसके नाम से तमाम बदलावों के बावजूद देहरादून के सबसे व्यस्त क्षेत्र को आज छह दशक बाद भी जाना जाता है।
प्रिंस होटल के नाम पर ऐसे पड़ गया व्यस्ततम चौराहे का नाम प्रिंस चौक
देहरादून के ‘प्रिंस चौक’ के नाम से भला कौन वाकिफ नहीं होगा। गढ़वाल मंडल से किसी को देहरादून आना हो या पश्चिमी यूपी से, अगर रेलवे स्टेशन अथवा बस अड्डे का जिक्र हो, तो प्रिंस चौक ही सबसे पहले बताया जाता रहा है। कचहरी-कलक्ट्रेट जाना हो, बाजार जाना हो, धर्मपुर-तहसील चौक-सहारनपुर चौक जाना हो, तो प्रिंस चौक का जिक्र अवश्य आता है। 1990 के दशक में इस चौक का नाम बदलकर महाराजा अग्रसैन चौक किया गया। लोगों की जुबान पर फिर भी प्रिंस चौक ही चढ़ा है। दरअसल, इस चौराहे का नाम प्रिंस चौक पड़ा यहां स्थित ‘होटल प्रिंस’ के नाम पर। चौराहे का यह नामकरण किसी ने किया नहीं था। बस पहचान के तौर पर पुराने दूनवासी इस होटल का नाम लेते थे। फिर, प्रिंस होटल के नाम पर यह चौराहा स्वतः ही समर्पित हो गया।
कोविडकाल से बंद होटल का इन दिनों तेजी से हो रहा ध्वस्तीकरण
पिछले छह दशक तक शहर के व्यस्त व प्रमुख हिस्से की पहचान रहा प्रिंस होटल अगले पांच-सात दिन बाद नजर नहीं आएगा। इन दिनों इसे ध्वस्त करने का काम तेजी से चल रहा है। आधा से ज्यादा हिस्सा ध्वस्त भी किया जा चुका है। होटल स्वामी विरमानी परिवार इसे बेच चुका है। हरिद्वार रोड और त्यागी रोड के जंक्शन पर स्थित इस होटल के हरिद्वार रोड वाले हिस्से में सबसे नीचे 8-9 दुकानें थीं, जबकि ऊपर की दो मंजिलों में कमरे। एक समय शहर की शान रहा यह होटल मौजूदा दौर में जरूर पुराना पड़ गया था, लेकिन इसकी पहचान कभी धुंधली नहीं हुई। कोविडकाल में होटल ‘गेस्ट’ के लिए बंद हुआ, तो उसके बाद से कभी नहीं खुला। अलबत्ता, कुछ स्टॉफ इसमें आखिर तक रहा।
दूनघाटी के आजादी बाद के पहले हाईक्लास होटल प्रिंस की 3 जून 1964 को हुई थी ओपनिंग
प्रिंस होटल का निर्माण दूनघाटी के रईसों में शुमार सेठ लक्ष्मणदास विरमानी ने 1962 में की थी। करीब दो साल बाद बनकर तैयार हुए होटल का उद्घाटन एक बड़े समारोह के बीच 3 जून 1964 को किया गया। स्व. लक्ष्मणदास के पुत्र हरीश विरमानी बताते हैं कि उनके छोटे भाई को घर में सब प्रिंस नाम से बुलाते थे। लिहाजा, जब होटल के नामकरण की बात आई, तो सेठजी ने इसे प्रिंस नाम दिया। उस समय आसपास आबादी बहुत कम थी। त्यागी रोड, हरिद्वार रोड ही नहीं सामने कचहरी रोड और गांधी रोड के बीच के हिस्से में भी कुछेक घर और बाग ही थे। गांधी रोड पर प्रिंस होटल के नजदीक जैन धर्मशाला पहले से थी, जबकि अग्रवाल धर्मशाला नई-नई बनी थी। शहर में कुछेक होटल थे, लेकिन सभी ब्रिटिशकाल के पुराने। ऐसे में आजादी बाद का पहला आधुनिक सुविधाओं वाला होटल प्रिंस ही था। लिहाजा, बाहर से आने वाले धनी-मानी लोग तब इसमें ही ठहरना पसंद करते थे। शहर के उस वक्त के अधिकांश रईसों के बच्चों की शादिया भी प्रिंस होटल में ही हुईं। पूरे एक बीघा जमीन पर बने होटल में कुल 24 कमरे थे। बार, रेस्टोरेंट और नीचे शॉपिंग सेंटर भी था। जब यह होटल बना, तो आबादी बहुत कम थी। लोग पहचान के तौर पर इसका जिक्र करते थे। ऐसे में कुछ ही समय के भीतर यह क्षेत्र प्रिंस चौक के नाम से जाना जाने लगा। हरीश कहते हैं कि यह हमारे लिए भी कम सुखद नहीं था कि हमारा होटल शहर के एक प्रमुख हिस्से की पहचान बना। इसे बेचने के पीछे की वजह वह बताते हैं कि करीब 60 साल गुजरने के बाद अब शहर में असंख्य होटल बन चुके हैं। बच्चे भी अब होटल से इतर अन्य व्यवसाय में रूचि दिखा रहे हैं। इसलिए, इसे बेचा गया है। नए खरीददार इसके स्थान पर कुछ और करना चाहते हैं। सो, होटल का ध्वस्तीकरण कर रहे हैं।
प्रिंस होटल के संस्थापक सेठ लक्ष्मणदास विरमानी ने ही शुरू की थी ‘रावण दहन’ की परंपरा
प्रिंस होटल के संस्थापक स्वामी सेठ लक्ष्मणदास विरमानी अविभाजित भारत के बन्नू क्षेत्र (अब पाकिस्तान) के रहने वाले थे। 1947 में विभाजन से कुछ पहले वे परिवारजनों के साथ देहरादून आ गए। यहां उन्होंने ‘बन्नू बिरादरी’ नाम से अपने लोगों का संगठन खड़ा किया। ये लक्ष्मणदास विरमानी ही थे, जिन्होंने साल-1947 में देहरादून में रावण दहन और सार्वजनिक दशहरा आयोजन की परंपरा शुरू की। उससे पूर्व झंडा तालाब में लंका दहन तो होता था, लेकिन रावण दहन देहरादून ही क्या, गढ़वाल मंडल में भी कहीं नहीं होता था। वे दशहरा कमेटी के तकरीबन छह दशक से भी ज्यादा तक प्रधान और फिर संरक्षक रहे। 1950 के दशक में उन्होंने ‘ऑल इंडिया बन्नू बिरादरी’ की स्थापना की और लंबे समय तक उसके अध्यक्ष रहे। ताउम्र कांग्रेस से जुड़े रहे लक्ष्मणदास करीब 25 साल तक देहरादून सिटी बोर्ड (नगर पालिका) के सभासद भी रहे। उनके पुत्र हरीश विरमानी भी कई साल दशहरा कमेटी और बन्नू बिरादरी के अध्यक्ष रहने के साथ ही कुछ वर्ष पहले तक कांग्रेस के महानगर अध्यक्ष रहे।
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