Shraddh Paksha 2025: Dates, Astrological Significance, and The True Meaning of Shraddh
देहरादून, 2 सितंबर 2025 : इस वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा सात सितंबर से पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष) की शुरुआत हो रही है, जो आश्विन कृष्ण अमावस्या 21 सितंबर तक रहेगा। खास बात यह कि इस बार पितृपक्ष की शुरुआत चंद्रग्रहण और समापन सूर्य ग्रहण के साथ हो रहा है। पितृपक्ष में ऐसा संयोग इससे पहले 122 वर्ष पहले 1903 में बना था। तब चंद्रग्रहण भारत में दृश्य नहीं था, लेकिन सूर्यग्रहण का प्रभाव देखने को मिला था। इस बार भारत में सूर्यग्रहण का प्रभाव नहीं रहेगा। इसलिए इस ग्रहण का सूतक काल भी नहीं माना जायेगा।
श्राद्ध का आध्यात्मिक महत्व
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श्राद्ध का अर्थ है सत्य को धारण करना यानी जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए। इस हिसाब से श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर विद्वान, अतिथि, माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है और सेवा के लिए व्यक्ति का प्रत्यक्ष (जीवित) होना जरूरी है। वेद तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता, गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश देते हैं। ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है कि ‘अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:’ यानी पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो।’
पितर का अर्थ है पालक, पोषक, रक्षक व पिता और जीवित माता-पिता ही रक्षण एवं पालन-पोषण कर सकते हैं, मृत नहीं। शास्त्रों में कहा गया है कि वही मनुष्य सुखी रह सकता है, जो तीन तरह के ऋण से मुक्त हो जाए। ये ऋण हैं, देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इनमें सर्वश्रेष्ठ ऋण है पितृ ऋण। क्योंकि यह उनका है, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया। जो हमारे जन्मदाता हैं। लेकिन इस ऋण से मुक्ति के लिए श्रद्धा चाहिए, आडंबर नहीं। ‘गरुड़ पुराण’ में कहा गया है कि बिना श्रद्धा के श्राद्ध हो ही नहीं सकता।
देखने में आता है लोग जीवित माता-पिता को तो जीवन भर चैन से नहीं रहने देते और मरने पर गंगा स्नान का दिखावा करते हैं। शायद इसीलिए मलूक दास को कहना पड़ा, ‘जियत मात-पिता दंगमदंगा, मरे तो पहुंचाए गंगा।’ जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य व सुखों की कामना के लिए रात-दिन की परवाह नहीं की, उन्हें जीवन उपेक्षा में गुजारना पड़े तो फिर श्राद्ध करने का औचित्य क्या है। ज्योषिताचार्य स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं असली श्रद्धा सेवा में है और सेवा उसी की हो सकती है, जो प्रत्यक्ष हो। लेकिन, चकाचौंध ने हमें संवेदनहीन बना दिया है। तभी तो हम प्रत्यक्ष की उपेक्षा करते हैं और जो सामने है नहीं, उसके लिए आडंबरों का सहारा लेते हैं। सोचिए, हम अगली पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं। वह भी तो वही करेगी, जो हम उन्हें सिखा रहे हैं।
स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि आतिथ्य सत्कार तो हमारा धर्म है, क्योंकि हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की परंपरा के लोग हैं। लेकिन, सिर्फ दिखावे के लिए किया गया आतिथ्य सत्कार आडंबर से ज्यादा कुछ नहीं। पितृपक्ष में हम ब्राह्मणों को घर बुलाकर उनका सेवा सत्कार करते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि ज्ञान को सम्मान दिया जाना चाहिए। वेद, महाभारत, रामायण आदि शास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों की है, मृतकों की नहीं। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि ‘उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु। त आ गमंतु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।’ (हमारे बुलाए जाने पर सोमरस का पान करने वाले पितर प्रीतिकारक यज्ञों और हमारे कोशों में आएं। पितर लोग हमारे वचनों को सुनें, हमें उपदेश दें और हमारी रक्षा करें।)
साल में श्राद्ध के 96 अवसर
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‘धर्म सिन्धु’ में श्राद्ध के 96 अवसर बताए गए हैं। एक वर्ष की 12 अमावस्या, चार पूर्णादि तिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, पांच अष्टका श्राद्ध, पांच अन्वष्टका और पांच पूर्वेद्यु: मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं।