Origin and History of Ramleela: From Tulsidas to Global Traditions
रजनी चंदर
देहरादून, 26 सितंबर 2025 : रामलीला भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा है, जिसकी जड़ें हजारों साल पुरानी रामकथा से जुड़ी हैं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण को नौ हजार से सात हजार वर्ष ईसा पूर्व के बीच का माना जाता है। यही कारण है कि रामलीला की शुरुआत कब और कैसे हुई, इसका सटीक प्रमाण नहीं मिलता I
कई इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री मानते हैं कि भारत ही नहीं, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया में भी रामलीला का मंचन सदियों से होता रहा है। जावा के सम्राट वलितुंग के 907 ईस्वी के शिलालेख में रामकथा के मंचन का उल्लेख मिलता है। इसी तरह थाईलैंड के राजा ब्रह्मत्रयी के राजभवन की 1458 ईस्वी की नियमावली में भी रामलीला का जिक्र मिलता है। इन प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि रामलीला एक सीमाओं से परे सांस्कृतिक परंपरा रही है।
तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला
भारत में भी रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पू्र्व में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन, 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास ने जब आम बोलचाल की भाषा ‘अवधी’ में श्रीराम के चरित्र को ‘रामचरितमानसÓ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरुआती रामलीला का मंचन काशी, चित्रकूट और अवध में किया। इतिहासविदों के अनुसार देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले राम बारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। वर्ष 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया।
काशी में गंगा और गंगा के घाटों से दूर चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी मानी जाने वाली रामलीला का मंचन किया जाता है। मान्यता है कि यह रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 16वीं शताब्दी में 80 वर्ष से भी अधिक की उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी थी।
रामलीला के प्रकार
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मुखौटा रामलीला: मुखौटा रामलीला का मंचन इंडोनेशिया और मलेशिया में होता रहा है। इंडोनेशिया का ‘लाखोन’, कंपूचिया का ‘ल्खोनखोल’ और म्यांमार का ‘यामप्वे’, ऐसे कुछ स्थान हैं, जहां इसका आज भी मंचन होता है।
छाया रामलीला: जावा व मलेशिया में ‘वेयांग’ और थाईलैंड में ‘नंग’ ऐसी जगह है, जहां कठपुतली के माध्यम से छाया नाटक प्रदर्शित किया जाता है। विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित होने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है।
मूक अभिनय: यह संगीतबद्ध हास्य थियेटर है। इसमें रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाई और दोहे गाकर सुनाता है और अन्य कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। इस शैली में रामलीला की झांकियां भी दिखाई जाती हैं और बाद में शहरभर में शोभायात्रा निकाली जाती है।
ओपेरा (संगीतबद्ध गायन) शैली: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में यह शैली विकसित हुई। इस रामलीला की खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं। इसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है।
रामलीला मंडली: मंडलियों के माध्यम से भी पेशेवर कलाकार रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना होती है। इसमें सूत्रधार, जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।