नैनीताल : उत्तराखंड में नैनीताल हाई कोर्ट ने कहा कि बच्चों की अभिरक्षा माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी को भी मिलनी चाहिए। ताकि उनका भावनात्मक विकास प्रभावित न हो। क्योंकि जब बच्चा बड़ा होता है तो उसे अपने साथियों से दबाव का सामना करना पड़ता है।
खंडपीठ ने राज्य के परिवार न्यायालयों को बच्चों की अभिरक्षा के मामलों में संरक्षकता और हिरासत कानूनों में सुधार के संबंध में विधि आयोग की 257वीं रिपोर्ट में की गई सिफारिशों का अनिवार्य रूप से पालन करने के निर्देश दिए हैं।
मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अधिवक्ता श्रुति जोशी की ओर से वैवाहिक मामलों में अदालती कार्यवाही के दौरान बच्चों को होने वाली मानसिक पीड़ा से संबंधित जनहित याचिका पर यह महत्वपूर्ण आदेश पारित किया है। कोर्ट ने भारत सरकार के कानून एवं न्याय मंत्रालय की ओर से जारी एक पत्र पर विचार किया। इसमें पारिवारिक न्यायालयों में परामर्श प्रक्रिया में सुधार से संबंधित कुछ प्रस्ताव शामिल हैं।
खंडपीठ ने कहा, न्यायमूर्ति एपी शाह की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने सिफारिश की है कि न्यायालय के पास बच्चे का ‘स्वतंत्र मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन’ प्राप्त करने की शक्ति होनी चाहिए। बाल मनोविज्ञान को समझने के लिए पेशेवर सहायता की आवश्यकता होनी चाहिए। विधि आयोग ने इस संबंध में हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम 1956 में कुछ संशोधनों की भी सिफारिश की है। न्यायालय ने निर्देश दिया कि विधि आयोग की ओर की गई सभी सिफारिशों को पारिवारिक न्यायालयों की ओर से अनिवार्य बनाया जाए।
साथ ही परामर्शदाताओं, जो बाल मनोवैज्ञानिक या सामान्य परामर्शदाता हैं उनकी नियुक्ति के लिए कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा जारी निर्देशों का भी पालन किया जाना चाहिए। उनकी रिपोर्ट वैज्ञानिक होने के कारण बच्चों की अभिरक्षा प्रदान करने के लिए साक्ष्य के रूप में ली जा सकती है।