Dussehra (Vijayadashami) 2025 – Significance, Meaning and Spiritual Message
दशहरा यानी विजयादशमी का पर्व नवरात्र के नौ दिन बाद आता है। नवरात्र और दशहरा ऐसे सांस्कृतिक उत्सव हैं, जो चैतन्य के देवी स्वरूप को पूरी तरह समर्पित हैं। इस पर्व के दिन जीवन के सभी पहलुओं के प्रति और जीवन में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं के प्रति अहोभाव प्रकट किया जाता है। नवरात्र के नौ दिन तमस, रजस और सत्व के गुणों से जुड़े हैं। पहले तीन दिन तमस के हैं, जब देवी रौद्र रूप में होती हैं, जैसे दुर्गा या काली। इसके बाद के तीन दिन देवी लक्ष्मी को समर्पित हैं। लक्ष्मी सौम्य हैं, पर भौतिक जगत से संबंधित हैं। आखिरी तीन दिन देवी सरस्वती यानी सत्व से जुड़े हैं। ये ज्ञान और बोध से संबंधित हैं। इन तीनों में जीवन समर्पित करने से जीवन को एक नया रूप मिलता है।
अगर हम तमस में जीवन लगाते हैं तो हमारेजीवन में एक तरह की शक्ति आएगी। रजस में जीवन लगाने पर किसी अन्य तरीके से शक्तिशाली होंगे और सत्व में जीवन लगाने पर बिल्कुल अलग तरीके से शक्तिशाली बनेंगे। लेकिन, अगर हम इन सबसे परे चले जाएं तो फिर शक्तिशाली बनने की बात नहीं होगी, बल्कि हम मुक्ति की ओर चले जाएंगे। नवरात्र के बाद दसवां यानी अंतिम दिन दशहरा यानी विजयादशमी का होता है। इसके मायने हुए कि हमने इन तीनों पर विजय पा ली। इनमें से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि हर गुण के आर-पार देखा। हर गुण में भागीदारी निभाई, लेकिन अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया। अर्थात सभी गुणों को जीत लिया। यही विजयादशमी है।
विजयादशमी का संदेश यही है कि जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से ही कामयाबी एवं विजय का वरण होता है। सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति के समन्वय का उत्सव है। नवरात्र के नौ दिन मां भगवती की उपासना कर शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरा यानी विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव आवश्यक भी है।
जहां विजय, वहीं विजयादशमी
————————————–
‘श्रीवाराह पुराण’ में कहा गया है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन बुधवार को हस्त नक्षत्र में समस्त नदियों में श्रेष्ठ गंगा नदी धरा पर अवतीर्ण हुई थी, जो दस पापों को नष्ट करने वाली है। इसीलिए इस तिथि को दशहरा कहते हैं। रावण के दस शीश थे और इसी दिन उसका हनन हुआ था, इसलिए भी यह त्योहार दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ और वर्षा ऋतु की समाप्ति एवं शरद ऋतु के आगमन पर आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाने लगा। दशहरा मनाने की परंपरा युगों से चली आ रही है। त्रेतायुग में श्रीराम ने लंकापति रावण का वध कर विजय का वरण किया था, इसलिए इसे विजयादशमी नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि विजयादशमी के दिन देवराज इंद्र ने महादानव वृत्तासुर पर विजय प्राप्त की थी। पांडवों ने भी विजयादशमी के दिन ही द्रौपदी का वरण किया।
महाभारत के युद्ध का आरंभ भी विजयादशमी के दिन से ही माना जाता है। ‘ज्योतिर्निबंध’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक मुहूर्त होता है, जो सर्वकार्य सिद्ध करने वाला माना गया है। इसीलिए इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा होगा। महर्षि भृगु ने कहा है कि इस दिन सभी राशियों में सायंकाल के समय विजय मुहूर्त में यात्रा करना उत्तम होता है, जो ग्यारहवां मुहूर्त है। जो जीत चाहते हैं, उन्हें इसी मुहूर्त में यात्रा करनी चाहिए।
इसी तिथि को श्रीराम ने भगवती विजया का पूजन कर विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इस दिन देवी विजया की पूजा परंपरा है। जिसकी वजह से इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा। ‘चिंतामणि’ नामक ग्रंथ में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल दशमी के दिन तारों के उदय होने का जो समय है, उसका विजय से संबंध है, जो सारे काम और अर्थों को पूरा करने वाला है।