Bandhal River’s Fury: A Travelogue Through Flood-Hit Chamrauli, Dehradun
यह प्रकृति को नियंत्रित करने की लालसा है या विकास के वितान पर ऊंची उड़ान की पिपासा। बात कुछ भी हो, लेकिन परिणाम भयावह है। इस नियति को देखने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। 15 सितंबर की रात बादल फटने के बाद से फिलहाल दून के बाहरी इलाकों में ऐसे दृश्य आम हैं। राजधानी से महज 18-20 किलोमीटर दूर छमरौली जाने वाली सड़क को ही देख लीजिए। सड़क कहां है ढंढूते रह जाओगे। टिहरी से दून तक का सफर तय करने वाली बांदल नदी के किनारे-किनारे फुलेत और छमरौली जैसे दर्जनों गांव की यह लाइफ लाइन आपदा से पूरी तरह तबाह हो गई है। ऐसे में चुनौतियों की इस राह पर याद आने लगीं हैं प्रसिद्ध कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की रचना ‘डायन कोसी’ और शिव प्रसाद सिंह की ‘कर्मनाशा की हार’। इन कहानियों के संदर्भ भले ही अलग हों, लेकिन नियति यही थी। यह भी सच है कि आमतौर पर मंथर गति से बहने वाली बांदल न तो कोसी है और न ही कर्मनाशा। ये दोनों नदियां मानसून सीजन में बिहार के लिए अभिशाप बन जाती थीं। ऐसे में सवाल यह है कि बरसात के मौसम में बादल जैसी नदियां बहकी भी तो इतना तांडव क्यों हुआ ?
सौंग का कोप
मैं किरण पांथरी एक घुमक्कड़ हूं और जिज्ञासु भी। शुक्रवार को मैंने अपने मित्र और वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर राजू पुशोला के साथ छमरोली की राह पकड़ी। मालदेेेेवता से मसूरी की ओर जाने वाली रोड पर बसे ये गांव आपदा के कारण बेहद चर्चा में रहे। रायपुर से मालदेवता की ओर बढ़ने के बाद मुख्य सड़क पर पुलिस चौकी क्रास की तो दृश्य बदलने लगा। सौंग नदी के कोप का शिकार हुई सड़क का एक बड़ा भाग ध्वस्त है, जिसकी मरम्मत की जा रही है। प्रतीत हो रहा है मानो सौंग नेे अपना विस्तार कर लिया हो। हालांकि इसके बाद कुछ दूर आगे तक सड़क ठीक-ठाक है। सुुुुुुबह-सुबह का वक्त है तो धूप भी प्रखर नहीं है। कुछ देर बाद हम मालदेवता में लालपुल पर जा पहुंचे। यहां से थोड़ा पहले कुमालडा के पास सौंग में मिलने के बाद बांदल की यात्रा यहीं पर सिमट जाती है और अब सौंग ही आगे बढ़ती है।
रिजोर्टों में पसरा सन्नाटा
लालपुल से बायीं ओर जाने वाला रास्ता ही हमारी मंजिल है। कुछ देर एक चाय की दुकान में सुस्ताने के बाद हम अपनी राह पकडते हैं। पथरीली राह पर आगे बढते हुए राजू मुझे यहां के बर्ड हैबिटेेट के बारे में बता रहे हैं। यह इलाका स्पाटेड फार्कटेल, ब्राउन डिपर, क्रेस्टेड किंगफिशर और स्माल निलतवा जैसे न जाने कितने परिंदों की पसंदीदा सैरगाह है। बाइक चलाते हुए उनकी आंखेंं लगातार चारों ओर जायजा लेती रहती हैं। हिचकोेले खाते हुए हमारी बाइक आगे बढ रही है। कुछ दूर जाने के बाद बायींं तरफ एक खूबसूरत झरना नजर आता है। राजू ने बताया कि यह पहले इतना बडा नहीं था। इस यात्रा में ऐसे न जाने कितने झरनों से सामना हुआ। सफर जारी रहा। बीच-बीच में नदी के किनारे नजर आ रहे भग्नावशेष, उस रात की दास्तां बयां कर रहे हैं। बांदल के किनारे जगह-जगह पर बने खूबसूरत रिजोर्टों में पसरा सन्नाटा भी बहुत कुछ कह रहा है।
सडक के अवशेष
लालपुल से पांच किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम जिस स्थान पर पहुंचे वहां जेसीबी के साथ ही अन्य मशीनें खडी थीं। कुछ श्रमिक उधडी हुई सडक की मरम्मत की तैयारी में जुटे थे। जेसीबी चालक प्रकाश से बात चली तो बोले, आगे रास्ता नहीं है। यदि आगे जाना ही है तो पैदल ही जाना पडेगा। हमे चेताते हुए कहा, आप लोग ज्यादा दूर नहीं जा पाएंगे। लेकिन हम लौटने को तैयार न हुए। आगे रास्ता ऐसा है मानो सूखी नदी से गुजर रहे हों, लेकिन 16 सितंबर से पहले यह सडक होती थी। मलबे के टीले को पार करने के बाद सडक के अवशेष दिख जाते हैं। थोडी दूर चलने पर सडक फिर गायब है, वहां है खाई और उसमें गिरता झरना। किसी तरह इसे पार कर मंजिल की ओर बढे।
मंजिल से दूर
सुबह के साढे नौ बजे हैं और दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा। भव्य भवन वीरान हैं। शायद इनमें रहने वाले लोग फिलहाल सुरक्षित ठिकानों में हों। पहाडी से फूट रहे झरने का पानी खाई में गिर रहा है और हम उसे पार करने का जोखिम उठा रहे हैं। यह कामयाबी हौसला बढाने वाली है। एकाएक राजू के कदम ठिठक जाते हैं और वह नदी के उस पार कुछ तलाशने लगते हैं। पूछने पर पता चला कि यह जगह ब्राउन फिश आउल की आरामगाहों में से एक है। मछलियों का शौकीन यह प्राणी आमतौर पर जंगल में नदी तट के पास रहना पसंद करता है। हालांकि उसकी उपस्थिति का एहसास तो हुआ, लेकिन दर्शन नहीं हो पाए। खैर, जोशीले कदमों के साथ यात्रा फिर शुरू हुई, लेकिन महज 50 कदम पर गहरी खाई और झरने का वेग के सामने थम गई। यहां से आगे बढने विकल्प नही सूझ रहा था। केवल एक रास्ता था, बायीं तरफ पहाडी पर चढकर उस पार पहुंचा जाए। मगर पहाडी से लुढक रहे पत्थरों ने इस विचार को कुचल दिया। क्या करते, कुदरत की ताकत के आगे सिर झुुुकाकर इस अधूरे सफर की दास्तां सुनाने के लिए हम लौट आए । वापसी में बांदल को निहारते हुए विचार कौंध रहा है कि ‘प्रकृति’ को कब तक बांधा जा सकता है, फिर नदी हो या इंसान। आजादी ही उसकी अभिलाषा है।