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Himalaya Ki Awaj > Blog > देश-विदेश > यह छाटा सा सेंसर भांप लेगा हवा में कितना जोखिम
देश-विदेश

यह छाटा सा सेंसर भांप लेगा हवा में कितना जोखिम

Web Editor
Last updated: 2025/07/05 at 5:14 AM
Web Editor
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3 Min Read
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नई दिल्‍ली : जिस हवा में हम सांस ले रहे हैं, उसमें कितना जहर घुला है। अब इसका पता लगाना आसान हो गया है। एक खास तरह से डिजाइन‍ किया गया सेंसर आसानी से भांप सकता है कि हवा कितनी प्रदूषित है। विशेषकर वायु में घुल रही सल्‍फर डाई आक्‍साइड (SO2) की मात्रा । यह गैस न केवल श्‍वसन तंत्र को क्षति पहुंचाती है, बल्कि अस्‍थमा के दौरे और फेफड़ों कों भी नुकसान पहुंचा सकती है।

आमतौर पर वाहनों और औद्योगिक उत्सर्जन से निकलने वाले धुएं के संपर्क से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्‍पन्‍न हो सकती हैं। सार्वजनिक सुरक्षा के लिए मौजूद उपकरणों से इसकी निगरानी की जाती है, लेकिन ये इतना महंंगा सौदा है कि हर जगह लगाना संभव नहीं है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त संस्थान, सेंटर फॉर नैनो एंड सॉफ्ट मैटर साइंसेज (सीईएनएस), बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने इस पर काबू पाने के लिए एक सरल संश्लेषण प्रक्रिया के माध्यम से दो धातु ऑक्साइड – निकल ऑक्साइड (NiO) और नियोडिमियम निकेल (NdNiO 3 ) को मिलाकर एक सेंसर तैयार किया। निकल ऑक्साइड (NiO) गैस के लिए रिसेप्टर के रूप में कार्य करता है और नियोडिमियम निकेल (NdNiO 3 ) ट्रांसड्यूसर के रूप में कार्य करता है, जो सिग्नल को कुशलतापूर्वक प्रसारित करता है। इससे 320 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) जितनी कम सांद्रता पर पता लगाना संभव हो जाता है। डॉ. एस. अंगप्पन के नेतृत्व वाली टीम ने एक पोर्टेबल प्रोटोटाइप विकसित किया, जिसमें वास्तविक समय में सल्‍फर डाई आक्‍साइड की निगरानी के लिए सेंसर शामिल है।

प्रोटोटाइप में एक सीधी-सादी सीमा-आधारित चेतावनी प्रणाली है, जो सुरक्षित के लिए हरा, चेतावनी के लिए पीला और खतरे के लिए लाल दृश्य संकेतकों को सक्रिय करती है। इससे वैज्ञानिक विशेषज्ञता के बिना भी उपयोगकर्ता आसानी से व्याख्या और प्रतिक्रिया कर सकते हैं। इसका कॉम्पैक्ट और हल्का डिज़ाइन इसे औद्योगिक क्षेत्रों, शहरी स्थानों और संलग्न स्थानों में उपयोग के लिए उपयुक्त बनाता है, जहां निरंतर वायु गुणवत्ता निगरानी आवश्यक है। श्री विष्णु जी नाथ ने इस सेंसर को डिजाइन किया है। इसमें डॉ. शालिनी तोमर, श्री निखिल एन. राव, डॉ. मुहम्मद सफीर नादुविल कोविलकाथ, डॉ. नीना एस. जॉन, डॉ. सतदीप भट्टाचार्य और प्रो. सेउंग-चेओल ली का भी योगदान है। यह शोध स्मॉल नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ

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